मरने की उम्मीद में बस जी रहा हूं,
अपनी सांसों का कफ़न खुद सी रहा हूं।
तेरी आंखों के पियाले देखे जब से,
मैं शराबी तो नहीं पर पी रहा हूं।
जनता के आइनों से मैं ख़ौफ़ खाता ,
मैं सियासी चेहरों का पानी रहा हूं।
तुम तवायफ़ की गली की आंधियां, मैं,
बे-मुरव्वत शौक की बस्ती रहा हूं।
क्या पता इंसानियत का दर्द मुझको,
सोच से ता-उम्र सरकारी रहा हूं।
काम हो तो मैं गधे को बाप कहता,
दिल से इक चालाक व्यापारी रहा हूं।
इश्क़ में तेरे ,हुआ बरबाद ये दिल,
हुस्न के मंचों की कठपुतली रहा हूं।
जग, पुजारी है किनारों की हवस का,
सब्र के दरिया की मैं कश्ती रहा हूं।
मत करो दानी हवाओं की ग़ुलामी,
मैं चरागों के लिये ख़ब्ती रहा हूं।
सभी शेर अच्छे, लेकिन ये सबसे अच्छा लगा-
ReplyDeleteमत करो दानी हवाओं की ग़ुलामी,
मैं चरागों के लिये ख़ब्ती रहा हूं
बढ़िया ग़ज़ल।
अच्छा संयोग है, मेरी आज की ग़ज़ल का रदीफ़ भी ‘रहा हूं‘ है।
बहुत बहुत धन्यवाद महेन्द्र वर्मा जी।
ReplyDeleteजग, पुजारी है किनारों की हवस का,
ReplyDeleteसब्र के दरिया का मैं कश्ती रहा हूं।
लाजवाब शेर....लाजवाब लेखनी को आभार...
शुक्रिया डा: वर्षा जी।
ReplyDeleteक्या पता इंसानियत का दर्द मुझको,
ReplyDeleteसोच से ता-उम्र सरकारी रहा हूं।..
Loving the pain and satire in the above lines .
Awesome !
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दीव्या जी को शुक्रिया।
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