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Saturday, 23 July 2011

रात की तंग गलियां

रात की तंग गलियों में सपने मेरे गुम रहे,
उनकी यादों के बेदर्द तूफ़ां भी मद्ध्म रहे।

नींद आती नहीं रात भर जागता रहता हूं,
मेरी तन्हाइयों के शराफ़त भी गुमसुम रहे।

ज़ख्मों का बोझ लेकर खड़ा हूं दरे-हुस्न पर,
दर्द ,गम ,आंसू ,रुसवाई ही मेरे मरहम रहे।

वस्ल का चांद परदेश में बैठके ले रहा,
इश्क़ की फ़ाइलों में विरह के तबस्सुम रहे।

प्यार की आग की लपटों से कौन बच पाया है,
दिल के मैदानों से दूर बारिश के मौसम रहे।

चांदनी मुझसे नाराज़ थी जब तलक दोस्तों,
तब तलक मेरे घर जुगनुओं के तरन्नुम रहे।

ईदी का फ़र्ज़ हुस्न वाले निभाते नहीं,
इसलिये आश्क़ी की गिरह में मुहर्रम रहे।

कर्ज़ की फ़स्लों से फ़ायदा ओ सुकूं कब मिला,
प्यार के खेतों पर बैंकों के खौफ़-मातम रहे।

गोया हर दौर में सैकड़ो लैला मजनू हुवे,
दुनिया वाले भी हर दौर में दानी ज़ालिम रहे।

5 comments:

  1. डॉ संजय जी... बेहद सुन्दर गजल रही.. और हर दौर से आपकी यह शिकायत भी खूब रही... सादर

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  2. ग़ज़ल है या आदमकद शीशा,
    मुझे अपना पूरा वजूद दिखा है।

    ग़ज़ल बहुत पसंद आई, सबसे अच्छा ये शेर लगा-

    चांदनी मुझसे नाराज़ थी जब तलक दोस्तों,
    तब तलक मेरे घर जुगनुओं के तरन्नुम रहे।

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  3. आदरणीया। डा :नूतन जी व आदरणीय महेन्द्र वर्मा जी का आभार।

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  4. चांदनी मुझसे नाराज़ थी जब तलक दोस्तों,
    तब तलक मेरे घर जुगनुओं के तरन्नुम रहे।

    प्रभावी अभिव्यक्ति .......

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  5. ड़ा: वर्षा जी का आभार।

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