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Saturday 28 August 2010

मुजरिम हूं मैं।

बहारों की अदालत का मैं मुजरिम हूं,
वफ़ा की बेड़ियों से जकड़ा मौसम हूं।

कभी वादों के दरिया का शराबी हूं,
कभी कसमों के मयख़ानों का मातम हूं।

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के मद का कभी ख़म हूं,
कभी मैं व्होठों के गुलशन का शबनम हुं।

तसव्वुर में ख़िज़ां के धूल का बादल, (तसव्वुर- यादें)
तुम्हारे झूठ के बारिश से पुरनम हूं।

तुम्हारी दीद से मेरी सहर होती, (दीद-- दर्शन)
घटाओं से घिरा वरना मैं अन्जुम हूं। ( अन्जुम-- तारा)

समंदर की शराफ़त की ज़मानत भी,
किनारों पर दग़ाबाज़ी का परचम हूं।

उजाले मेरी सांसों के ख़मोशी हैं,
अंधेरों की गली का मैं तरन्नुम हूं।

खिलौने बेच कर फुटपाथ पे ज़िन्दा,
अमीरों की हिक़ारत से मैं क़ायम हूं।

ग़ुनाहे इश्क़ का दानी सिपाही हूं ,
ख़ुदाई शहरे-मज़हब का मैं आदम हूं।

Saturday 21 August 2010

यादों की नदी

तेरी यादों की नदी फिर बह रही है,
फिर ज़मीने-दिल परेशां हो गई है।

ख़्वाबों के बिस्तर में सोता हूं अब मैं,
बे-मुरव्वत नींद मयके जा चुकी है।

दिल ये सावन की घटाओं पे फ़िदा है,
तेरी ज़ुल्फ़ें ही फ़िज़ाओं की ख़ुदी है।

मैं कहानीकार ,तुम मेरे अदब हो,
मेरी हर तहरीर तुमसे जा मिली है।

नाम तेरा ही बसा है मेरे लब पे,
दिल्लगी है दिल की, या दिल की लगी है।

इक छलावा हो गई लैला की कसमें,
मजनूं के किरदार पर दुनिया टिकी है।

महलों की दीवारों पे शत शत सुराख़ें,
झोपड़ी विशवास के ज़र पर खड़ी है।

जान देकर हमने सरहद को बचाया,
पर मुहल्ले की फ़ज़ायें मज़हबी हैं।

हुस्न के सागर में दानी डूबना है,
कश्ती-ए-दिल की हवस से दोस्ती है।

Saturday 14 August 2010

मुहब्बत-ए-मुल्क

जिनको नहीं गुमान मुहब्बत-ए-मुल्क का,
वो क्यूं करें बखान शहादत-ए-मुल्क का।

इज़हार नकली प्यार का हमको न चाहिये,
तू बस जला चिराग़ ख़यानत-ए-मुल्क का।

ता-उम्र दुश्मनी निभा ऐ दुश्मने वतन,
तू ढूंढ हर तरीक़ा अदावत-ए-मुल्क का।

उन्वान तू शहीदों का क्या जाने ख़ुदगरज़,
तू चमड़ी बेच, भूल जा इज़्ज़त-ए-मुल्क का।

हर दौर के शहीद तग़ाफ़ुल के मारे हैं , (तग़ाफ़ुल---उपेक्छा)
ये काम है ज़लील सियासत-ए-मुल्क का।

ये तेरे दादा नाना की जन्म भूमि है,
रखना है तुझको मान विलादत-ए-मुल्क का।

कमज़ोरी मत तू हमारे ख़ुलूस को,
उंगली दबा के देख तू ताक़त-ए-मुल्क का।

बापू की बातें अपनी जगह ठीक है मगर,
कब उनका फ़लसफ़ा था नदामत-ए-मुल्क का। ( नदामत-- लज्जा)

अपने वतन की मिट्टी करें हम ख़राब तो,
यारो किसे हो शौक इबादत-ए-मुल्क का।

सबको शहीद होना ज़रूरी नहीं मगर,
दिल में ख़याल तो रहे क़ामत-ए-मुल्क का।

अब मारना ही होगा ज़हरीले सांपों को,
कब तक दिखायें अक्स शराफ़त-ए-मुल्क का।

दानी शहीदों के लहू से सब्ज़ है वतन,
वो मर के भी उठाते ज़मानत-ए-मुल्क का।

उजड़ा नगर

मुझपे फिर उनकी, दुवाओं का असर है,
मेरा दिल फिर आज उजड़ा नगर है।

नौकरी परदेश में गो कर रहा पर ,
यादों के दरिया में डूबा मेरा घर है।

गंगा भ्रष्टाचार की बहने लगी है,
इसलिये महंगाई का सर भी उपर है।

तुम सख़ावत की सियासत सीखना मत,
ये अमीरों की डकैती का हुनर है।

राम का नाम जपते हैं सदा पर,
रावणी क्रित्यों से थोड़ा भी न डर है।

झोपड़ी कालोनी में तन्हा है जबसे,
बिल्डरों की उसपे लालच की नज़र है।

ग़म चराग़े दिल का बढ्ता जा रहा है,
बेरहम मन में तसल्ली अब सिफ़र है।

देख मेरे इश्क़ का उतरा चेहरा,
आंसुओं से आईना ख़ुद तर-ब-तर है।

ख़्वाबों में भी सोचो मत उन्नति वतन की,
मच्छरों को मारना ही उम्र भर है।

प्यार है भैसों से नेता आफ़िसर को,
खातिरे इंसां , व्यवस्था अब लचर है।

बेवफ़ाई हावी है दानी वफ़ा पर,
इक ज़माने से यही ताज़ा ख़बर है
Posted by ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι at 10:21 PM

Saturday 7 August 2010

प्यासा सहरा

देख मुझको, उसके चेहरे पे हंसी है,
प्यासा सहरा मैं ,उफनती वो नदी है।

राहे-सब्रे- इश्क़ का इक मुसाफ़िर मैं,
वो हवस की महफ़िलों में जा छिपी है।

सौदा उसका बादलों से पट चुका है,
वो अंधेरों में शराफ़त ढूंढती है।

दिल पहाड़ो को मैंने कुर्बां किया है,
सोच में उसकी उंचाई की कमी है।

दिलेआशिक़ तो झिझकता इक समंदर,
हुस्न की कश्ती अदाओं से भरी है।

सोया हूं वादों के चादर को लपेटे,
खाट धोखेबाज़ी से हिलने लगी है।

महलों सा बेख़ौफ़ तेरा हुस्न हमदम,
इश्क़ की ज़द में झुकी सी झोपड़ी है।

दिल के दर को खटखटाता है तेरा ग़म,
दुश्मनी के दायरे में दोस्ती है।

होली का त्यौहार आने वाला है फिर,
उनकी आंखों की गली में दिल्लगी है।

दिल का मंदिर खोल कर रखती वो जब से,
दानी , कोठों की दुआयें थम गई हैं ।