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Saturday, 6 August 2011

विरह की आग

मुझसे सावन की घटा ,ये कह रही है,
क्यूं विरह की आग तेरे दर खड़ी है।

ऐसे मौसम में ख़फ़ा क्यूं तुझसे साजन ,
तेरे ही श्रृंगार में शायद कमी है।

कुछ अदा-ए-हुस्न का परचम तो फ़हरा,
तुझको यौवन की इनायत तो मिली है।

भीख मांगेगा रहम की,तुझसे वो, तू
हुस्न की जंज़ीर ढीली क्यूं रखी है।

बांध कर क्यूं रखते हो ज़ुल्फ़ों को अपनी,
इसके साये में हया भी बोलती है।

नथनी ,बिछिया , पैरों में माहुर कहां हैं,
सब्र की बुनियाद इनसे ही ढही है।

नीमकश नज़रों से बर्छी तो चलाओ,
सैकड़ों कुरबानी इसने ही तो ली है।

चूड़ियों को हौले से खनका तो दे , फिर
देखें कितनी पाक साजन की ख़ुदी है।

फिर सुना, झन्कार अपने पायलों की,
साधुओं की भी इन्हीं से दुश्मनी है।

सुर्ख साड़ी की ज़मानत क्यूं न लेती,
ये मुहब्बत की अदालत की सखी है।

तेरा साजन दौड़ कर आयेगा दानी,
वो कोई ईश्वर नहीं इक आदमी है।

3 comments:

  1. बेहद शानदार लाजवाब गज़ल ।
    एक-एक शे’र लाजवाब।

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  2. धन्यवाद डा:वर्षा जी

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  3. आप को बहुत बहुत धन्यवाद की आपने मेरे ब्लॉग पे आने के लिये अपना किमती समय निकला
    और अपने विचारो से मुझे अवगत करवाया मैं आशा करता हु की आगे भी आपका योगदान मिलता रहेगा
    बस आप से १ ही शिकायत है की मैं अपनी हर पोस्ट आप तक पहुचना चाहता हु पर अभी तक आप ने मेरे ब्लॉग का अनुसरण या मैं कहू की मेरे ब्लॉग के नियमित सदस्य नहीं है जो में आप से आशा करता हु की आप मेरी इस मन की समस्या का निवारण करेगे
    आपका ब्लॉग साथी
    दिनेश पारीक
    http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/

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