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Wednesday 24 November 2010

वंश का हल

शौक के बादल घने हैं
दिल के ज़र्रे अनमने हैं।


दीन का तालाब उथला
ज़ुल्म के दरिया चढ़े हैं।


अब मुहब्बत की गली में
घर,हवस के बन रहे हैं।


मुल्क ख़तरों से घिरा है
क़ौमी छाते तन चुके हैं।


बेवफ़ाई खेल उनका
हम वफ़ा के झुनझुने हैं।


ख़ौफ़ बारिश का किसे हो
शहर वाले बेवड़े हैं।


चार बातें क्या की उनसे
लोग क्या क्या सोचते हैं।


हम ग़रीबों की नदी हैं
वे अमीरों के घड़े हैं।


लहरों पे सुख की ज़ीनत
ग़म किनारों पे खड़े हैं।


रोल जग में" दानी" का क्या
वंश का रथ खींचते हैं।

Saturday 20 November 2010

बेबस महफ़िल

महफ़िलें भी आज बेहद तन्हा हैं
बज़्मे दिल में बेरुख़ी का पर्दा है।

जो समंदर सा दिखे किरदार से
वो किनारों की ग़ुलामी करता है।

इश्क़ का घर सब्र से मजबूत है
हुस्न की छत पे हवस का सरिया है।

नेक़ी मौक़ों की नज़ाकत पर टिकी
चोरी करना सबको अच्छा लगता है।

मन की दीवारें सुराख़ो से भरीं
जिसके अंदर हिर्स का जल बहता है।

ज़िन्दगी को हम ही उलझाते रहे
आदमी जीते जी हर पल मरता है।

अब मदद की सीढियों सूखी हैं पर
शौक के घर बेख़ुदी का दरिया है।

हां रसोई ,रिश्तों की बेस्वाद है
देख कर कद, दूध शक्कर बंटता है।

दानी का दिल है चराग़ों पर फ़िदा
आंधियों से अब कहां वो डरता है।

Sunday 14 November 2010

जागे से अरमान

जागे से दिल के अरमान हैं
इश्क़ का सर पे सामान है।

कुछ दिखाई नहीं देता अब
सोच की गलियां सुनसान हैं।

दुश्मनी हो गई नींद से
आंखों के पट परेशान हैं।

मेरी तनहाई की तू ख़ुदा
महफ़िले ग़म की तू जान है।

काम में मन नहीं लगता कुछ
बेबसी ही निगहबान है।

मुझको दरवेशी का धन दिया
तू फ़कीरों की भगवान है।

दर हवस के खुले रह गये
बंद तहज़ीब की खान है।

सब्र मेरा चराग़ों सा है
वो हवस की ही तूफ़ान है।

ज़र ज़मीं जाह क्या चीज़ है
प्यार में जान कुरबान है।

दिल की छत पे वो फ़िर बैठी है
मन का मंदिर बियाबान है।

दानी को बेवफ़ाई अजीज़
इल्म ये सबसे आसान है।

Wednesday 10 November 2010

ग़ुरबत का मकां

नींव बिन जो हवाओं में खड़ा है
मेरी ग़ुरबत के मकां का हौसला है।

टूटे हैं इमदाद के दरवाज़े लेकिन
मेहनत का साफ़, इक पर्दा लगा है।

सीढियों पर शौक की काई जमी है
छत पे यारो सब्र का तकिया रखा है।

आंसुओं से भीगी दीवारे -रसोई
पर शिकम के खेत में, सूखा पड़ा है।

बेटी की शादी के खातिर धन नहीं है
इसलिये अब बेटी ही, बेटा बना है।

सुख से सदियों से अदावत है हमारी
ग़म ही अब हम लोगों का सच्चा ख़ुदा है।

सैकड़ों महलों को गो हमने बनाया
पर हमारा घर, ज़मीनें ढूंढ्ता है।

बंद हैं अब हुस्न की घड़ियां शयन में
इश्क़ के बिस्तर का चादर फ़टा है।

हां अंधेरा पसरा है आंगन के सर पे
रौशनी का ज़ुल्म, दानी से ख़फ़ा है।