www.apnivani.com ...

Saturday 25 December 2010

दिल का गागर

भुरभुरा है दिल का गागर,
क्यूं रखेगा कोई सर पर।

हिज्र का दीया जलाऊं,
वस्ल के तूफ़ां से लड़ कर।

उनकी आंखों के दो साग़र,
ग़म बढाते हैं छलक कर।

जब से तुमको देखा हमदम,
थम गया है दिल का लश्कर।

भंवरों का घर मत उजाड़ो,
फूल, बन जायेंगे पत्थर।

झूठ का आकाश बेशक,
जल्द ढह जाता ज़मीं पर।

ग़म, किनारों का मुहाफ़िज़
सुख का सागर दिल के भीतर।

न्याय क़ातिल की गिरह में,
फ़ांसी पे मक़्तूल का सर।

आशिक़ी मांगे फ़कीरी,
दानी भी भटकेगा दर-दर।

Saturday 18 December 2010

बदज़नी से

दर्द के दरिया से दिल की उलफ़त हुई
यादों की कश्तियों में तबीयत चली।

बेबसी के सफ़र का मुसाफ़िर हूं मैं,
हुस्न के कारवां की इनायत यही।

मैं ज़मानत चरागों की लेता रहा,
आंधियों की अदालत ने तेरी सुनी।

दिल, ग़मों के कहानी का किरदार है,
हुस्न के मंच पर मेरी मैय्यत सजी।

है मदद की छतों पर मेरी सल्तनत,
तू ज़मीने-सितम की रियासत रही।

अपने घर में जहन्नुम भुगतता रहा,
सरहदे-इश्क़ में मुझे ज़न्नत मिली।

बदज़नी से मेरा रिश्ता बरसों रहा,
तेरी गलियों में सर पे शराफ़त चढी ।

मैं किताबे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं,
बेवफ़ाई तुम्हारी शरीयत बनी।

प्यार की कश्ती सागर की जानिब चली,
तेरे वादों के साहिल की दहशत बड़ी।

दिल ये, दानी का मजबूत था हमनशीं,
जब से तुमसे मिला हूं नज़ाकत बढी।

Saturday 11 December 2010

दोस्तों ने कर दिया

दोस्तों ने कर दिया बरबाद घर
दुश्मनों से अब नहीं लगता है डर।

कब मिलेगी मन्ज़िलों की दीद, कब
ख़त्म होगा तेरे वादों का सफ़र।

जिसके कारण मुझको दरवेशी मिली
है इनायत उसकी सारे शहर पर।

आशिक़ी क्या होती है क्या जानो तुम
क़ब्र में भी रहता है दिल मुन्तज़र।

छोड़ दूं मयख़ाने जाना गर तू, रख
दे अधर पे मेरे, अपने दो अधर।

कश्ती-ए- दिल है समन्दर का ग़ुलाम
लग नहीं जाये किनारों की नज़र।

हौसलों से मैं झुकाऊंगा फ़लक
क्या हुआ कट भी गये गर बालो-पर।

छोड़ कर मुझको गई है जब से तू
है नहीं इस दिल को अपनी भी ख़बर।

है चरागों सा मुकद्दर मेरा भी
दानी भी जलता है तन्हा रात भर।

मुन्तज़र -- इन्तज़ार में। फ़लक - आसमां
बालो-पर- बाल और पंख

Saturday 4 December 2010

सब्र का जाम

सोच के दीप जला कर देखो,
ज़ुल्म का मुल्क ढ्हा कर देखो।

दिल के दर पे फ़िसलन है गर,
हिर्स की काई हटा कर देखो।

साहिल पे सुकूं से रहना गर,
लहरों को अपना कर देखो।

ग़म के बादल जब भी छायें,
सब्र का जाम उठा कर देखो।

ईमान ख़ुदाई नेमत है,
हक़ पर जान लुटा कर देखो।

डर का कस्त्र ढहाना है गर,
माथ पे ख़ून लगा कर देखो।

आग मुहब्बत की ना बुझती,
हीर की कब्र खुदा कर देखो।

वस्ल का शीश कभी न झुकेगा,
हिज्र को ईश बना कर देखो।

डोर मदद की हर घर में है,
हाथों को फैला कर देखो।

हुस्न का दंभ घटेगा दानी,
इश्क़ का फ़र्ज़ निभा कर देखो।

Wednesday 1 December 2010

क्या भरोसा ज़िन्दगी का

क्या भरोसा ज़िदगी का
वक़्त की नाराज़गी का।

इश्क़ के बादल भटकते
दे पता अपनी गली का।

हुस्न की लहरों से बचना
ये समंदर है बदी का।

फूलों को समझाना आसां
ना-समझ है दिल कली का।

आंधी सी वो आई घर में
थम चुका है कांटा घड़ी का।

दौड़ने से क्या मिलेगा
ये सफ़र है तश्नगी का।

बन्धनों से मुक्त है जो
मैं किनारा उस नदी का।

चांद के सर पे है बैठी
क्या मज़ा है चांदनी का।

ग़म खड़ा है मेरे दर पे
क्या ठिकाना अब ख़ुशी का।

बेच खाया दानी का घर
ये सिला है दोस्ती का।

Wednesday 24 November 2010

वंश का हल

शौक के बादल घने हैं
दिल के ज़र्रे अनमने हैं।


दीन का तालाब उथला
ज़ुल्म के दरिया चढ़े हैं।


अब मुहब्बत की गली में
घर,हवस के बन रहे हैं।


मुल्क ख़तरों से घिरा है
क़ौमी छाते तन चुके हैं।


बेवफ़ाई खेल उनका
हम वफ़ा के झुनझुने हैं।


ख़ौफ़ बारिश का किसे हो
शहर वाले बेवड़े हैं।


चार बातें क्या की उनसे
लोग क्या क्या सोचते हैं।


हम ग़रीबों की नदी हैं
वे अमीरों के घड़े हैं।


लहरों पे सुख की ज़ीनत
ग़म किनारों पे खड़े हैं।


रोल जग में" दानी" का क्या
वंश का रथ खींचते हैं।

Saturday 20 November 2010

बेबस महफ़िल

महफ़िलें भी आज बेहद तन्हा हैं
बज़्मे दिल में बेरुख़ी का पर्दा है।

जो समंदर सा दिखे किरदार से
वो किनारों की ग़ुलामी करता है।

इश्क़ का घर सब्र से मजबूत है
हुस्न की छत पे हवस का सरिया है।

नेक़ी मौक़ों की नज़ाकत पर टिकी
चोरी करना सबको अच्छा लगता है।

मन की दीवारें सुराख़ो से भरीं
जिसके अंदर हिर्स का जल बहता है।

ज़िन्दगी को हम ही उलझाते रहे
आदमी जीते जी हर पल मरता है।

अब मदद की सीढियों सूखी हैं पर
शौक के घर बेख़ुदी का दरिया है।

हां रसोई ,रिश्तों की बेस्वाद है
देख कर कद, दूध शक्कर बंटता है।

दानी का दिल है चराग़ों पर फ़िदा
आंधियों से अब कहां वो डरता है।

Sunday 14 November 2010

जागे से अरमान

जागे से दिल के अरमान हैं
इश्क़ का सर पे सामान है।

कुछ दिखाई नहीं देता अब
सोच की गलियां सुनसान हैं।

दुश्मनी हो गई नींद से
आंखों के पट परेशान हैं।

मेरी तनहाई की तू ख़ुदा
महफ़िले ग़म की तू जान है।

काम में मन नहीं लगता कुछ
बेबसी ही निगहबान है।

मुझको दरवेशी का धन दिया
तू फ़कीरों की भगवान है।

दर हवस के खुले रह गये
बंद तहज़ीब की खान है।

सब्र मेरा चराग़ों सा है
वो हवस की ही तूफ़ान है।

ज़र ज़मीं जाह क्या चीज़ है
प्यार में जान कुरबान है।

दिल की छत पे वो फ़िर बैठी है
मन का मंदिर बियाबान है।

दानी को बेवफ़ाई अजीज़
इल्म ये सबसे आसान है।

Wednesday 10 November 2010

ग़ुरबत का मकां

नींव बिन जो हवाओं में खड़ा है
मेरी ग़ुरबत के मकां का हौसला है।

टूटे हैं इमदाद के दरवाज़े लेकिन
मेहनत का साफ़, इक पर्दा लगा है।

सीढियों पर शौक की काई जमी है
छत पे यारो सब्र का तकिया रखा है।

आंसुओं से भीगी दीवारे -रसोई
पर शिकम के खेत में, सूखा पड़ा है।

बेटी की शादी के खातिर धन नहीं है
इसलिये अब बेटी ही, बेटा बना है।

सुख से सदियों से अदावत है हमारी
ग़म ही अब हम लोगों का सच्चा ख़ुदा है।

सैकड़ों महलों को गो हमने बनाया
पर हमारा घर, ज़मीनें ढूंढ्ता है।

बंद हैं अब हुस्न की घड़ियां शयन में
इश्क़ के बिस्तर का चादर फ़टा है।

हां अंधेरा पसरा है आंगन के सर पे
रौशनी का ज़ुल्म, दानी से ख़फ़ा है।

Saturday 30 October 2010

आशिक़ को नसीहत

दिल के दीवारों की, आशिक़ को नसीहत,
इश्क़ के सीमेन्ट से ढ्ह जाये ना छत।

रेत भी गमगीं नदी का हो तो अच्छा,
सुख का दरिया करता है अक्सर बग़ावत।

सब्र का सरिया बिछाना दिल के छत पे,
छड़, हवस की कर न पायेगी हिफ़ाज़त

प्लास्टर विश्वास के रज का लगा हो,
खिड़कियों के हुस्न से टपके शराफ़त।

सारे दरवाज़े,मिजाज़ो से हों नाज़ुक,
कुर्सियों के बेतों से झलके नफ़ासत।

कमरों में ताला सुकूं का ही जड़ा हो,
फ़र्श लिखता हो मदद की ही इबारत।

दोस्ती की धूप हो,आंगन के लब पे,
गली में महफ़ूज़ हो चश्मे-मुहब्बत।

सीढियों की धोखेबाज़ी, बे-फ़लक हो,
दीन के रंगों से खिलती हो इमारत।

मेहनत का हो धुंआ दानी किचन में,
रोटियों की जंग में, टूटे न वहदत। वहदत-- एकता।

Saturday 23 October 2010

नई नौकरी

इस भीड़ भरी ट्रेन में कोई नहीं मेरा,
तन्हाई के बिस्तर में तसव्वुर का बसेरा।

रफ़्तार बहुत तेज़ है बैठा भी न जाता,
मजबूरी के चादर में ग़मे-जिस्म लपेटा।

मुझको नहीं मालूम कहां है मेरी मन्ज़िल,
कब ये ख़ौफ़ज़दा रस्ता सख़ावत से हटेगा। ( सख़ावत- दानशीलता)

मै एक नई नौकरी करने चला परदेश,
माज़ी के ग़मों का जहां होगा न बखेड़ा। (माज़ी - बीता समय)

मग़रूर था उस फ़ेक्टरी का दिल जहां था मैं,
सम्मान नये स्थान में महफ़ूज़ रहेगा।

हम नौकरों को झेलना ही पड़ता है ये सब,
मालिक के बराबर कहां ठहराव मिलेगा।

अपनों से विदा ले के चला हूं मैं सफ़र में,
अब हश्र तलक अपनों को ये दिल न दिखेगा।

सच्चाई दिखानी है वहां अपने ज़मीं की,
अब झूठ का दरिया वहां पानी भरेगा।

किस्मत का बदलना मेरे बस में नहीं दानी,
भगवान ही दानी की ख़ता माफ़ करेगा ।

Saturday 16 October 2010

मुसाफ़िर

बंद राहों के सफ़र का मैं मुसाफ़िर,
पैरों में बेहोशी, पर उन्मादी है सिर।

तन में ज़ख़्मों का दुशाला इक फ़टा सा,
चप्पलों में ख़ून का दरिया है हाज़िर।

सेहरा है दीनो-ईमां का गले में,
मेरा ही ख़ूं देख दुनिया समझे काफ़िर।

सब्र का झंडा गड़ा था दिल के छत पे ,
लड़ता तूफ़ाने-हवस से कैसे आख़िर।

अब नहीं पढती किताबे-दिल को लैला,
ग़मे-मजनू का बने अब कौन मुख़बिर।

बैठ्के -दिल में रसोई का धुआं है ,
इक मुकदमा आग का, आंगन पे दाइर।

तन के दरवाज़ों को कचरों की अता,
मन की गलियों में नही दिखता मुहर्रिर।

बेवफ़ाई के महल के, सुख भी नाज़ुक,
शौक का सीमेन्ट सदियों से शातिर।

बीवी का दिल, ग़ै्रों के पैसों पे कुर्बां,
बात ये कैसे करूं दुनिया को ज़ाहिर।

उलझनों की बेड़ियां माथे पे दानी,
मुश्किलों का कारवां घर में मुनाज़िर।


अता-देन ,मुनाज़िर- आंखों के सामने। मुख़बिर--ख़बर देने वला।

Saturday 9 October 2010

इश्क़ का मंदिर

ख़ुदगरज़ तेरी मुहब्बत की हवा है,
रोज़ जिसकी छत बदलने की अदा है।

सैकड़ों मशगूल हैं सजदे में तेरे,
तू जवानी के मजारों की ख़ुदा है।

मैं पुजारी ,इश्क़ के मंदिर का तेरा,
देवी दर्शन पर मुझे मिल ना सका है।

आंधियों के क़त्ल का ऐलान है अब,
सर, चराग़ों की जमानत ले चुका है।

दिल के भीतर सैकड़ों दीवारें हैं अब,
रिश्तों का बाज़ार पैसों पर टिका है।

है ज़रूरी पैसा जीने के लिये पर,
इश्क़ का गुल्लक भरोसों से भरा है।

तुम भी तडफ़ोगी वफ़ा पाने किसी की,
एक हुस्ने-बेवफ़ा को बद्दुआ है।

सच्चा आशिक़ सब्र के सागर में रहता,
तू किनारों के हवस में मुब्तिला है।

आगे राहे-इश्क़ में बढना तभी ,गर
दानी कुरबानी का दिल में हौसला है।

Saturday 2 October 2010

न्याय की छत

दिल के घर में हर तरफ़ दीवार है,
जो अहम के कीलों से गुलज़ार है।

तौल कर रिश्ते निभाये जाते यहां,
घर के कोने कोने में बाज़ार है।

अब सुकूं की कश्तियां मिलती नहीं,
बस हवस की बाहों में पतवार है।

ख़ून से लबरेज़ है आंगन का मन,
जंगे-सरहद घर में गो साकार है।

थम चुके विश्वास के पखें यहां,
धोखेबाज़ी आंखों का ष्रिंगार है।

ज़ुल्म के तूफ़ानों से कमरा भरा,
सिसकियां ही ख़ुशियों का आधार है।

हंस रहा है लालची बैठका का फ़र्श,
कुर्सियों की सोच में हथियार है।

मुल्क का फ़ानूस गिरने वाला है,
हां सियासत की फ़िज़ा गद्दार है।

सर के बालों की चमक बढने लगी,
पेट की थाली में भ्रष्टाचार है।

न्याय की छत की छड़ें जर्जर हुईं,
चंद सिक्कों पे टिका संसार है।

टूटी हैं दानी मदद की खिड़कियां,
दरे-दिल को आंसुओं से प्यार है।

Saturday 25 September 2010

हंगामे-इश्क़।

सर झुकाता ही नहीं हंगामे- इश्क़,
इसलिये सबसे उपर है नामे-इश्क़।

है नहीं सारा ज़माना रिंद पर,
कौन है जो ना पिया हो जामे-इश्क़।

इश्क़ में कुर्बानी पहली शर्त है,
इक ज़माने से यही अन्जामे-इश्क़।

दुश्मनों से भी गले दिल से मिलो,
सारी दुनिया को यही पैग़ामे-इश्क़।

फिर खड़ी है चौक पे वो बेवफ़ा,
फिर करेगी शहर में नीलामे-इश्क़।

जिसको पहले प्यार का गुल समझा था,
निकली अहले-शहर की गुलफ़ामे-इश्क़।

हुस्न के मंदिर में घुसने ना मिला,
ये अता है ये नहीं नाकामे-इश्क़।

बस तड़फ़ बेचैनी रुसवाई यही,
मजनू को है लैला का इनआमे-इश्क़।

तर-ब-तर हो जाता हूं बारिश में मैं,
दानी का बेसाया क्यूं है बामे-इश्क़।

हंगाम--पल,समय। रिंद-शराबी। अहले-शहरकी-शहरवालों की।
अता- देन। बामे-इश्क़- इश्क़ का छत।

Saturday 18 September 2010

अख़बार हूं,

दर्दो- ग़म आंसुओं का तलबगार हूं,
मैं तो इल्मे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं।

मुझपे इन्सानियत का करम तो है पर,
बदजनों के लिये मैं पलटवार हूं।

धर्म फिर बांट देगा मुझे देखना,
मुल्क का डर,कहां मैं निराधार हूं।

वो सनकती हवाओं सी बेदर्द है,
मैं अदब के चराग़ों सा दिलदार हूं।

तुम हवस के किनारों पे बेहोश हो,
सब्रे सागर का बेदार मंझधार हूं।

मेरे आगे ख़ुदा भी झुकाता है सर,
मैं धनी आदमी का अहंकार हूं।

बेवफ़ाई की दौलत मुझे मत दिखा,
मैं वफ़ा के ख़ज़ाने का सरदार हूं।

ऐ महल ,झोपड़ी की न कीमत लगा,
अपनी कीमत बता,मैं तो ख़ुददार हूं।

रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।

Saturday 11 September 2010

तवायफ़

ज़िन्दगी इक मशीन बन चुकी है,
बेबसी की ज़मीन हो चली है।

काम का बोझ बढते ही जा रहा,
पीठ की छाती फटने सी लगी है।

सच का छप्पर चटकने को हुआ,
झूठ की नींव पुख़ता हो रही है।

लैला मजनूं का कारवां ख़ामोश,
ये हवस की सदाओं की सदी है।

पेड़ उगने लगे हैं पैसों के,
पर मदद की जड़ें उखड़ गई हैं।

गांव के खेत तन्हा से खड़े हैं,
कारख़ानों में महफ़िलें सजी हैं।

आसमां ख़ुद ही झुकना चाहता ,पर
कोशिशों की ज़ुबां दबी दबी हैं।

अब सियासत तो धर्म का बाज़ार,
इक तवायफ़ सी बिकने को खड़ी है।

महलों में ज़ोर ज़ुल्म के अरदास,
शांति के मद में दानी झोपड़ी है।

Saturday 4 September 2010

दिल के दरों को

खटखटाया ना करो दिल के दरों को,
मैं खुला रखता हूं मन की खिड़कियों को।

फिर दरख़्ते प्यार में घुन लग रहा तुम,
काट डालो बेरुख़ी के डालियों को।

गर बदलनी दुश्मनी को दोस्ती में,
तो मिटा डालो दिलों के सरहदों को।

बढ गई है ग़म की परछाई ज़मीं में,
धूप का दीमक लगा ,सुख के जड़ों को।

मैं मकाने-इश्क़ के बाहर खड़ा हूं,
तोड़ आ दुनिया के रस्मों की छतों को।

गो ज़ख़ीरा ज़ख़्मों का लेकर चला हूं,
देख हिम्मत, देख मत घायल परों को।

फ़स्ले-ग़ुरबत कुछ अमीरों ने बढाई,
लूट लेते हैं मदद के पानियों को।

ख़ुशियों के दरिया में ग़म की लहरें भी हैं,
सब्र की शिक्छा दो नादां कश्तियों को।

घर के भीतर राम की हम बातें करते,
घर के बाहर पूजते हैं रावणों को।

छत चराग़े-सब्र से रौशन है दानी,
जंग का न्योता है बेबस आंधियों को।

Saturday 28 August 2010

मुजरिम हूं मैं।

बहारों की अदालत का मैं मुजरिम हूं,
वफ़ा की बेड़ियों से जकड़ा मौसम हूं।

कभी वादों के दरिया का शराबी हूं,
कभी कसमों के मयख़ानों का मातम हूं।

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के मद का कभी ख़म हूं,
कभी मैं व्होठों के गुलशन का शबनम हुं।

तसव्वुर में ख़िज़ां के धूल का बादल, (तसव्वुर- यादें)
तुम्हारे झूठ के बारिश से पुरनम हूं।

तुम्हारी दीद से मेरी सहर होती, (दीद-- दर्शन)
घटाओं से घिरा वरना मैं अन्जुम हूं। ( अन्जुम-- तारा)

समंदर की शराफ़त की ज़मानत भी,
किनारों पर दग़ाबाज़ी का परचम हूं।

उजाले मेरी सांसों के ख़मोशी हैं,
अंधेरों की गली का मैं तरन्नुम हूं।

खिलौने बेच कर फुटपाथ पे ज़िन्दा,
अमीरों की हिक़ारत से मैं क़ायम हूं।

ग़ुनाहे इश्क़ का दानी सिपाही हूं ,
ख़ुदाई शहरे-मज़हब का मैं आदम हूं।

Saturday 21 August 2010

यादों की नदी

तेरी यादों की नदी फिर बह रही है,
फिर ज़मीने-दिल परेशां हो गई है।

ख़्वाबों के बिस्तर में सोता हूं अब मैं,
बे-मुरव्वत नींद मयके जा चुकी है।

दिल ये सावन की घटाओं पे फ़िदा है,
तेरी ज़ुल्फ़ें ही फ़िज़ाओं की ख़ुदी है।

मैं कहानीकार ,तुम मेरे अदब हो,
मेरी हर तहरीर तुमसे जा मिली है।

नाम तेरा ही बसा है मेरे लब पे,
दिल्लगी है दिल की, या दिल की लगी है।

इक छलावा हो गई लैला की कसमें,
मजनूं के किरदार पर दुनिया टिकी है।

महलों की दीवारों पे शत शत सुराख़ें,
झोपड़ी विशवास के ज़र पर खड़ी है।

जान देकर हमने सरहद को बचाया,
पर मुहल्ले की फ़ज़ायें मज़हबी हैं।

हुस्न के सागर में दानी डूबना है,
कश्ती-ए-दिल की हवस से दोस्ती है।

Saturday 14 August 2010

मुहब्बत-ए-मुल्क

जिनको नहीं गुमान मुहब्बत-ए-मुल्क का,
वो क्यूं करें बखान शहादत-ए-मुल्क का।

इज़हार नकली प्यार का हमको न चाहिये,
तू बस जला चिराग़ ख़यानत-ए-मुल्क का।

ता-उम्र दुश्मनी निभा ऐ दुश्मने वतन,
तू ढूंढ हर तरीक़ा अदावत-ए-मुल्क का।

उन्वान तू शहीदों का क्या जाने ख़ुदगरज़,
तू चमड़ी बेच, भूल जा इज़्ज़त-ए-मुल्क का।

हर दौर के शहीद तग़ाफ़ुल के मारे हैं , (तग़ाफ़ुल---उपेक्छा)
ये काम है ज़लील सियासत-ए-मुल्क का।

ये तेरे दादा नाना की जन्म भूमि है,
रखना है तुझको मान विलादत-ए-मुल्क का।

कमज़ोरी मत तू हमारे ख़ुलूस को,
उंगली दबा के देख तू ताक़त-ए-मुल्क का।

बापू की बातें अपनी जगह ठीक है मगर,
कब उनका फ़लसफ़ा था नदामत-ए-मुल्क का। ( नदामत-- लज्जा)

अपने वतन की मिट्टी करें हम ख़राब तो,
यारो किसे हो शौक इबादत-ए-मुल्क का।

सबको शहीद होना ज़रूरी नहीं मगर,
दिल में ख़याल तो रहे क़ामत-ए-मुल्क का।

अब मारना ही होगा ज़हरीले सांपों को,
कब तक दिखायें अक्स शराफ़त-ए-मुल्क का।

दानी शहीदों के लहू से सब्ज़ है वतन,
वो मर के भी उठाते ज़मानत-ए-मुल्क का।

उजड़ा नगर

मुझपे फिर उनकी, दुवाओं का असर है,
मेरा दिल फिर आज उजड़ा नगर है।

नौकरी परदेश में गो कर रहा पर ,
यादों के दरिया में डूबा मेरा घर है।

गंगा भ्रष्टाचार की बहने लगी है,
इसलिये महंगाई का सर भी उपर है।

तुम सख़ावत की सियासत सीखना मत,
ये अमीरों की डकैती का हुनर है।

राम का नाम जपते हैं सदा पर,
रावणी क्रित्यों से थोड़ा भी न डर है।

झोपड़ी कालोनी में तन्हा है जबसे,
बिल्डरों की उसपे लालच की नज़र है।

ग़म चराग़े दिल का बढ्ता जा रहा है,
बेरहम मन में तसल्ली अब सिफ़र है।

देख मेरे इश्क़ का उतरा चेहरा,
आंसुओं से आईना ख़ुद तर-ब-तर है।

ख़्वाबों में भी सोचो मत उन्नति वतन की,
मच्छरों को मारना ही उम्र भर है।

प्यार है भैसों से नेता आफ़िसर को,
खातिरे इंसां , व्यवस्था अब लचर है।

बेवफ़ाई हावी है दानी वफ़ा पर,
इक ज़माने से यही ताज़ा ख़बर है
Posted by ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι at 10:21 PM

Saturday 7 August 2010

प्यासा सहरा

देख मुझको, उसके चेहरे पे हंसी है,
प्यासा सहरा मैं ,उफनती वो नदी है।

राहे-सब्रे- इश्क़ का इक मुसाफ़िर मैं,
वो हवस की महफ़िलों में जा छिपी है।

सौदा उसका बादलों से पट चुका है,
वो अंधेरों में शराफ़त ढूंढती है।

दिल पहाड़ो को मैंने कुर्बां किया है,
सोच में उसकी उंचाई की कमी है।

दिलेआशिक़ तो झिझकता इक समंदर,
हुस्न की कश्ती अदाओं से भरी है।

सोया हूं वादों के चादर को लपेटे,
खाट धोखेबाज़ी से हिलने लगी है।

महलों सा बेख़ौफ़ तेरा हुस्न हमदम,
इश्क़ की ज़द में झुकी सी झोपड़ी है।

दिल के दर को खटखटाता है तेरा ग़म,
दुश्मनी के दायरे में दोस्ती है।

होली का त्यौहार आने वाला है फिर,
उनकी आंखों की गली में दिल्लगी है।

दिल का मंदिर खोल कर रखती वो जब से,
दानी , कोठों की दुआयें थम गई हैं ।

Saturday 31 July 2010

वस्ल की ज़मीन

इस दिल के दर के पास उन्हीं के निशान है,
पर वस्ल की ज़मीन से वो बद-गुमान है।
मेरी वफ़ा के आसमां को उनसे इश्क़ है,
लेकिन हवस के फ़र्श पर उनकी अजान है।
मैं कसमों का ज़ख़ीरा रखा हूं सहेज कर,
पर उनकी वादा बेचने की सौ दुकान है।
सारा जहां झुका चुका हूं हौसलों के दम,
ज़ेहन में उनके बुजदिली का आसमान है।
जर्जर ये कश्ती सात समन्दर की राह पर,
अब लहरों का सलीब मेरा पासबान है।
कल्पना राम- राज्य की साकार होगी अब,
कुछ रावणों के हाथों वतन की कमान है।
जबसे सियासी ज़ुल्म बढा मुल्के-गांधी में,
हथियारों की दलाली , मेरा वर्तमान है।
मक़्तूल के लहद को उजाड़ा गया है, न्याय
फिर क़ातिलों के हाथों बिका बाग़बान है।
लूटो-ख़सोटो और निकल जाओ चुपके से,
दानी जदीद शिक्छा प्रणाली का ग्यान है।

वस्ल-- मिलन। पासबान- रक्छक। लहद-कब्र। जदीद- न

Monday 12 July 2010

उलझन

उलझनों में मुब्तिला है ज़िन्दगी ,मुश्किलों का सिलसिला है ज़िन्दगी।
बीच सागर में ख़ुशी पाता हूं मैं , साहिले ग़म से जुदा है ज़िन्दगी ।
फ़ांसी फिर मक़्तूल को दे दी गई ,क़ातिलों का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी।
किसी को तरसाती है ता-ज़िन्दगी,किसी के खातिर ख़ुदा है ज़िन्दगी।
मैं ग़ुलामी हुस्न की क्यूं ना करूं, चाकरी की इक अदा है ज़िन्दगी ।
इक किनारे पे ख़ुशी दूजे पे ग़म ,दो क़दम का फ़ासला है ज़िन्दगी।
मैं हताशा के भंवर में फंस चुका, मेरी सांसों से ख़फ़ा है ज़िन्दगी।
बे-समय भी फ़ूट जाती है कभी ,पानी का इक बुलबुला है ज़िन्दगी।
वादा करके तुम गई हो जब से दूर, तेरी यादों की क़बा है ज़िन्दगी ।
मैं चराग़ो के सफ़र के साथ हूं , बे-रहम दानी हवा है ज़िन्दगी।

Tuesday 15 June 2010

सूर्ख गुलशन

तू मेरे सूर्ख गुलशन को हरा कर दे , ज़मीं से आसमां का फ़ासला कर दे।
हवाओं के सितम से कौन डरता है , मेरे सर पे चरागों की ज़िया कर दे ।
या बचपन की मुहब्बत का सिला दे कुछ,या इस दिल के फ़लक को कुछ बड़ा कर दे।
तसव्वुर में न आने का तू वादा कर , मेरी तनहाई के हक़ में दुआ कर दे।
पतंगे की जवानी पे रहम खा कुछ , तपिश को अपने मद्धम ज़रा कर दे ।
हराना है मुझे भी अब सिकन्दर को , तू पौरष सी शराफ़त कुछ अता कर दे।
मुझे मंज़ूर है ज़ुल्मो सितम तेरा , मुझे जो भी दे बस जलवा दिखा कर दे ।
तेरे बिन कौन जीना चाहता है अब , मेरी सांसों की थमने की दवा कर दे ।
शहादत पे सियासत हो वतन मे तो , शहीदों के लहद को गुमशुदा कर दे।
यहीं जीना यहीं मरना है दोनों को , यहीं तामीर काशी करबला कर दे।
भटकना गलियों में मुझको नहीं आता, दिले-आशिक़ को दानी बावरा कर दे।


अता- देना ,लहद-क़ब्र, तसव्वुर-कल्पना ,फ़लक-गगन।, ज़िया-रौशनी
Labels: aब्वरा

Saturday 12 June 2010

तशनगी

रात भर बेबसी सी होती है , सुबह फ़िर तशनगी सी होती है।
फ़ूलों में खुशबू अब नहीं होते ,धूप मे भी नमी सी होती है।
अपनी खुशियां सुकूं नहीं देती , तेरे ग़म से खुशी सी होती है ।
मैं शराबी नहीं मगर तुझको , देखकर मयकशी सी होती है ।
मुल्क में बहरों की सियासत है ,हर सदा अनसुनी सी होती है।
पानियों का मुहाल है रुकना , ज़िन्दगी भी नदी सी होती है।
सामने हुस्न जब भी आती है , कल्ब में खलबली सी होती है।
गर जलावो मशाले ग़म त्तो ही, बा-अदब शाइरी सी होती है।
बंद इक राह तो खुलेगी नई , मौत भी ज़िन्दगी सी होती है।
सरहदों के सवाल पर दानी , क्यूं नसें बावरी सी होती हैं ।