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Friday 3 June 2011

तेरी जुदाई का मातम

तेरी जुदाई का ऐसा मातम रहा,
ता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।

मंज़िल मेरी तेरी ज़ुल्फ़ों के गांव में,
दिल के सफ़र में बहुत पेचो-ख़म रहा।( पेचो_ख़म- उलझन)

इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
पर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।

सांसे गुज़र तो रही हैं बिन तेरे भी,
पर जीने का हौसला हमदम कम रहा।

ईमां की खेती करें तो कैसे करें,
बाज़ारे दुनिया में सच भी बरहम रहा। (बरहम- अप्रसन्न)

दिल की गली को दुआ तेरे अब्र की,
ता उम्र ज़ुल्मो-सितम का मौसम रहा।

नेक़ी की पगड़ी गो ढीली ढीली रही,
मीनार छूता बदी का परचम रहा।( परचम- झंडा)

भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे, ( अर्श- आकाश)
सदियां गई आदमी पर ,आदम रहा।

बुलबुल-ए-दिल, हुस्न के बगिया से कहे
सैयाद से रिश्ता दानी कायम रहा

6 comments:

  1. .

    इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
    पर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।

    lovely couplets.

    .

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  2. ग़ज़ल के भाव पढ़ने वाले की अनुभूतियों से एकाकार हो रहे हैं।
    यही इस ग़ज़ल की ख़ासियत है।
    शुभकामनाएं, डॉ. साहब।

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  3. बेहद उत्कृष्ट रचना है यह. आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.

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  4. दीव्या जी, महेन्द्र जी व डा:वर्षा जी का तहे-दिल आभार।

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  5. लाजवाब सोच रही हूँ कि किस शेर को कोत करूँ हर शेर ही कमाल है। काश मै भी इस तरह की खूबसूरत गज़ल लिख पाती। बधाई संजय जी।

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  6. आपकी ज़र्रानवाज़ी के लिये शुक्रिया निर्मला जी।

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