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Saturday, 11 June 2011

दोस्ती मुश्किलों से

हो गई है दोस्ती मुश्किलों से,
बढ रही हैं दूरियां मन्ज़िलों से।

तेरे दर पे मरने आया हूं हमदम,
वार तो कर आंखों की खिड़कियों से।

बीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
सरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।

सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
लगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।

इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।

दिल के गुल को मंदिरों से है नफ़रत,
वो लिपटना चाहे तेरी लटों से।

दिल के छत पर तेरे वादों का तूफ़ां,
जो भड़कता हिज्र के बादलों से।

गर सियासत के बियाबां में जाओ,
बच के रहना जंगली भेड़ियों से।

जीतना है गर समन्दर को दानी,
फ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।

14 comments:

  1. अच्छी गजल.उम्दा शेर.

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  2. गर सियासत के बियाबां में जाओ,
    बच के रहना जंगली भेड़ियों से।
    sahi kaha hai .rajniti aesi hai hai
    khubsurat gazal
    rachana

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  3. बीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
    सरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।
    वाह अलग सा शेर। बहुत सुन्दर । बधाई।

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  4. सपना जी, रचना जी डा: नूतन जी और निर्मला दीदी आप सबका तहे-दिल आभार।

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  5. जीतना है गर समन्दर को दानी,
    फेंक दो पतवारों को कश्तियों से।

    वाह, इस शेर में तो आपने बिल्कुल नई बात कह दी है।
    बधाई

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  6. सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
    लगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।
    इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
    हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।

    बहुत खूब...बहुत खूब....बहुत खूब....

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  7. महेन्द्र भाई व वर्षा जी का तहे दिल आभार।

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  8. बहुत खूब ...हर शेर लाजवाब है इस ग़ज़ल में संजय जी ...

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  9. नासवा जी आपका अभार।

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  10. जीतना है गर समन्दर को दानी,
    फ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
    वाह ! संजय भाई , अपने हौसले को किस खूबसूरती से बुलंद किया है.
    (मेरे छत्तीसगढ़ी ब्लोग्स http://mitanigoth.blogspot.com
    and http://gharhare.blogspot.com में भी पधारें.)

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  11. गर सियासत के बियाबां में जाओ,
    बच के रहना जंगली भेड़ियों से...

    Very appealing lines.

    .

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  12. शुक्रिया दीव्या जी।

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