हो गई है दोस्ती मुश्किलों से,
बढ रही हैं दूरियां मन्ज़िलों से।
तेरे दर पे मरने आया हूं हमदम,
वार तो कर आंखों की खिड़कियों से।
बीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
सरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।
सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
लगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।
इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।
दिल के गुल को मंदिरों से है नफ़रत,
वो लिपटना चाहे तेरी लटों से।
दिल के छत पर तेरे वादों का तूफ़ां,
जो भड़कता हिज्र के बादलों से।
गर सियासत के बियाबां में जाओ,
बच के रहना जंगली भेड़ियों से।
जीतना है गर समन्दर को दानी,
फ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
अच्छी गजल.उम्दा शेर.
ReplyDeleteगर सियासत के बियाबां में जाओ,
ReplyDeleteबच के रहना जंगली भेड़ियों से।
sahi kaha hai .rajniti aesi hai hai
khubsurat gazal
rachana
bahut sundar... umda sher vaah...
ReplyDeleteबीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
ReplyDeleteसरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।
वाह अलग सा शेर। बहुत सुन्दर । बधाई।
सपना जी, रचना जी डा: नूतन जी और निर्मला दीदी आप सबका तहे-दिल आभार।
ReplyDeleteजीतना है गर समन्दर को दानी,
ReplyDeleteफेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
वाह, इस शेर में तो आपने बिल्कुल नई बात कह दी है।
बधाई
सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
ReplyDeleteलगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।
इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।
बहुत खूब...बहुत खूब....बहुत खूब....
महेन्द्र भाई व वर्षा जी का तहे दिल आभार।
ReplyDeleteबहुत खूब ...हर शेर लाजवाब है इस ग़ज़ल में संजय जी ...
ReplyDeleteनासवा जी आपका अभार।
ReplyDeleteजीतना है गर समन्दर को दानी,
ReplyDeleteफ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
वाह ! संजय भाई , अपने हौसले को किस खूबसूरती से बुलंद किया है.
(मेरे छत्तीसगढ़ी ब्लोग्स http://mitanigoth.blogspot.com
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Thanks Arun Bhai.
ReplyDeleteगर सियासत के बियाबां में जाओ,
ReplyDeleteबच के रहना जंगली भेड़ियों से...
Very appealing lines.
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शुक्रिया दीव्या जी।
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