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Sunday 25 September 2011

वफ़ा का नक़ाब

ग़मों का ज़िन्दगी भर जो हिसाब रखता है,
उसे कभी न खुशी का सवाब मिलता है।

कटाना पड़ता है सर जान देनी पड़ती है,
किसी वतन में तभी इन्क़लाब आता है।

चराग़ों से तुम्हें गर मिलता है उजाला तो,
ज़लील चांदनी की क्यूं किताब पढता है।

उसे अजीज़ है गो बेवफ़ाई का बिस्तर ,
मगर पास वफ़ा का वो नक़ाब रखता है।

सिपाही,जान लुटाकर संवारते सरहद,
सियासी चाल से मौसम ख़राब होता है।

अंधेरों की भी ज़रूरत है सबको जीवन में,
हरेक दर्द कहां आफ़ताब हरता है।

शराब की क्या औक़ात, साक़ी की अदा से,
शराबियों को नशा-ए-शराब चढता है।

हवस के बिस्तर में रोज़ सोती है वो, सब्र
का मेरे दिल के बियाबां में ख़्वाब पलता है।

जो हार कर भी निरंतर प्रयास करता रहे,
वो दुनिया में सदा कामयाब होता है।

अगर तू इश्क़ समंदर से करता है दानी,
तो रोज़ साहिलों को क्यूं हिसाब देता है।

6 comments:

  1. आपकी ग़ज़लों का स्तर बहुत उच्च होता है।
    शे‘रों में जि़ंदगी के अलग-अलग दृश्य साफ देखे जा सकते हैं।

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  2. आपकी ज़र्रानवाज़ी का मै शुक्र्गुज़ार हूं भाई महेन्द्र वर्मा जी।

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  3. सिपाही,जान लुटाकर संवारते सरहद,
    सियासी चाल से मौसम ख़राब होता है।

    WAAH...BEJOD.

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  4. अंधेरों की भी ज़रूरत है सबको जीवन में,
    हरेक दर्द कहां आफ़ताब हरता है।
    हर एक शेर में अंदाज और फलसफा जुदा-जुदा सा है.सबको मिलाके देखें तो पूरी ज़िंदगी नज़र आती है.

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  5. आपकी छवि के अनुरूप कमाल की ग़ज़ल है !
    मुबारकबाद !

    आपको सपरिवार
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  6. Many many thanks to Niraj ji, Bhai Arun ji and Rajendra Swarnkar ji.

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