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Saturday, 8 October 2011

अब इश्क़ में पारसाई

अब इश्क़ की गली में कोई पारसा नहीं,
सुख, त्याग का सफ़र कोई जानता नहीं।

ये दौर है हवस का सभी अपना सोचते,
रिश्तों की अहमियत से कोई वास्ता नहीं।

फुटपाथ पर गरीबी ठिठुरती सी बैठी है
ज़रदारे-शह्र अब किसी की सोचता नहीं।

जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
मरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।

वे क़िस्से लैला मजनूं के सुन के करेंगे क्या,
आदेश हिज्र का कोई जब मानता नहीं।

मंझधार कश्तियों की मदद करना चाहे पर,
मगरूर साहिलों क कहीं कुछ पता नहीं।

ये दौर कारखानों का है खेती क्यूं करें,
मजबूरी की ये इन्तहा है इब्तिदा नहीं।

मंदिर की शिक्षा बदले की,मस्जिद में वार का
अब धर्म ओ ग़ुनाह में कुछ फ़ासला नहीं।

दिल के चराग़ों को जला, बैठा है दानी, वो
कैसे कहे हवा-ए-सनम में वफ़ा नहीं।

8 comments:

  1. मंदिर की शिक्षा बदले की, मस्जिद में वार का
    अब धर्म ओ ग़ुनाह में कुछ फ़ासला नहीं।

    लाजवाब शेर, उम्दा ग़ज़ल।

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  2. Thanks Mahendra Bhaai aapakI duaaoN se likhne kaa jazbe ko himmat milti hai.

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  3. ये दौर कारखानों का है खेती क्यूं करें,
    मजबूरी की ये इन्तहा है इब्तिदा नहीं।
    लाजवाब शेर ...

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  4. अरे वाह क्या खूब कहा है बहुत ही सुंदर ....

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  5. संध्या शर्मा जी व डा:वर्षा जी का आभार।

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  6. मंझधार कश्तियों की मदद करना चाहे पर,
    मगरूर साहिलों क कहीं कुछ पता नहीं।

    Subhan Allah...Waah...Kmaal ki ghazal...Badhai swiikaren

    Neeraj

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  7. जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
    मरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।
    वाह वाह क्या बात है ........

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