इक धूप का टुकड़ा भी मेरे पास नहीं है,
पर अहले जहां को कोई संत्रास नहीं है।
मंझधार से लड़ने का मज़ा कुछ और है यारो,
मुरदार किनारों को ये अहसास नहीं है।
कल के लिये हम पैसा जमा कर रहे हैं ख़ूब,
कितनी बची है ज़िन्दगी ये आभास नहीं है।
मासूम चराग़ों की ज़मानत ले चुका हूं,
तूफ़ां की वक़ालत मुझे अब रास नहीं है।
मैं हुस्न के वादों की परीक्षा ले रहा हूं,
वो होगी कभी पास ये विश्वास नहीं है।
अब सब्र के दरिया में चलाऊंगा मैं कश्ती,
पहले कभी भी इसका गो अभ्यास नहीं है।
ग़ुरबत का बुढापा भी जवानी से कहां कम,
मेहनत की इअबादत का कोई फ़ांस नहीं है।
आज़ादी का हम जश्न मनाने खड़े हैं आज,
बेकार ,सियासी कोई अवकाश नहीं है।
अब भूख से मरना मेरी मजबूरी है दानी,
हक़ में मेरे रमज़ान का उपवास नहीं है।
इक धूप का टुकड़ा भी मेरे पास नहीं है,
ReplyDeleteपर अहले जहां को कोई संत्रास नहीं है।
मंझधार से लड़ने का मज़ा कुछ और है यारो,
मुरदार किनारों को ये अहसास नहीं है।
सच की तस्वीर दिखाती इस धारदार ग़ज़ल के लिए
आपको हार्दिक बधाई।
डा: वर्षा जी का आभार्।
ReplyDeleteमासूम चराग़ों की ज़मानत ले चुका हूं,
ReplyDeleteतूफ़ां की वक़ालत मुझे अब रास नहीं है।
बिल्कुल ही नई सोच.बेहतरीन अछूता खयाल.
इक धूप का टुकड़ा भी मेरे पास नहीं है,
ReplyDeleteपर अहले जहां को कोई संत्रास नहीं है।
मंझधार से लड़ने का मज़ा कुछ और है यारो,
मुरदार किनारों को ये अहसास नहीं है।
सुभान अल्लाह दानी साहब...बेहतरीन.... मतले से मकते तक का बेहद खूबसूरत सफ़र तय किया है इस ग़ज़ल ने...दिली दाद कबूल करें...
नीरज
अरूण भाई और नीरज जी का आभार्।
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