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Monday, 23 May 2011

रात तेरे वादों पर कुर्बान है।

ये रात तेरे वादों पर कुर्बान है,
अब ख़्वाबों का चौपाल भी सुनसान है।

ग़म दर्द से लबरेज़ मेरे दिल का दर,
सर पर वफ़ा का भारी सा सामान है।

पैरों पे छाले पड़ चुके हैं इश्क़ के,
पर हुस्न का दिल दर्द से अन्जान है।

दोनों मुसाफ़िर हैं सफ़र-ए-इश्क़ के,
पर मंज़िलों से उनकी ही पहचान है।

दिल का समन्दर क्यूं किनारों पर फ़िदा,
ये कश्ती-ए-मज़रूह का अपमान है।

मेरी किताबों में तेरे अल्फ़ाज़ हैं,
मेरी कलम का हौसला ज़िन्दान है ।( ज़िन्दान - क़ैद)

इस गांव के बाशिन्दे पर खाओ तरस,
तू बे-नियाज़े शह्र की सुल्तान है।

मैं क़ब्र में भी राह तेरी देखूंगा'
मरती हुई सांसों का ऐलान है।

ये इश्क़ भी दानी अंधेरों की गली,
मुश्किल निकलना,घुसना गो आसान है।
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4 comments:

  1. बहुत सुन्दर ग़ज़ल| धन्यवाद|

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  2. मैं क़ब्र में भी राह तेरी देखूंगा'
    मरती हुई सांसों का ऐलान है ...

    बहुत खूब संजय दानी जी ... लाजवाब ग़ज़ल है ..
    और ये शेर तो प्रेम की इंतहा बयान कर रहा है ... बहुत खूब ...

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  3. सर पर वफ़ा का , भारी सा सामान है .
    वाह क्या अछूती कल्पना है. बिलकुल नई सोच.संजय भाई, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ने को मिली.बहुत खूब.

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