राम की नगरी में रावण की सभायें,
द्वारिका पर कंस की कसती भुजायें।
उस तरक्की के सफ़र में चल पड़े हम,
लक्ष्मणों का पाप ढोती उर्मिलायें।
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
विभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें।
आंसुओं से भीगे रामायण के पन्ने,
तुलसी भी लिक्खे सियासत की कथायें।
आज भी मीरायें विष पी रही हैं,
आज के क्रिष्णों की ठंडी हैं शिरायें।
मस्त हैं सावित्री ओ यमराज के दिल,
सत्यवां की आंखों में उमड़ी घटायें।
गांधी के बंदर कहां अब बोलते हैं,
हर तरफ़ मनमोहनी ज़ुल्मी सदायें।
नेक़ी ईमां अब सरे बाज़ार बिकते,
पाप के असबाब से बढती वफ़ायें।
मुल्क की इज़्ज़त की किसको पड़ी है,
ग़मज़दा सारे शहीदों की चितायें।
पांडवों की हार में हंसते हैं दानी
कौरवों की जीत में ख़ुशियां मनायें।
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
ReplyDeleteविभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें
आज के सन्दर्भ में बहुत सटीक पंक्तियाँ हैं ...आपका आभार
आज भी मीरायें विष पी रही हैं,
ReplyDeleteआज के क्रिष्णों की ठंडी हैं शिरायें।
मौजूदा हालात पर बिल्कुल सटीक प्रस्तुति.....
आज का सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेष का बहुत सुंदर व्यंगात्मक
ReplyDeleteचित्रण है धार्मिक चरित्र को आज के परिवेष में प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत किया डॉ. दानी जी को धन्यवाद
thanks to kewalRamji,Sandhya ji and uma Shankara ji.
ReplyDeletemany many Thanks
राम की नगरी में रावण की सभायें,
ReplyDeleteद्वारिका पर कंस की कसती भुजायें।
उस तरक्की के सफ़र में चल पड़े हम,
लक्ष्मणों का पाप ढोती उर्मिलायें ...
Sanjay ji ... itihaas ko jhanjhod ke rakh dya aapne ... kuch maanytaayen jo aaj ke dour ke anysaar khari nahi utarti unko mita dena hi achhaa hota hai ... kamaal ki gazal hai ...
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
ReplyDeleteविभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें।
आंसुओं से भीगे रामायण के पन्ने,
तुलसी भी लिक्खे सियासत की कथायें।
बहुत ही सुन्दैर एवं सार्थक लेखन ....
many many Thanks to Digambar Naswa ji and varshaa Singh ji.
ReplyDeleteसंजय भाई ! पौराणिक पात्रों को वर्तमान सन्दर्भ में देखने का अनोखा अंदाज़.दिनोदिन काव्य उम्दा होता जा रहा है.तुम्हारी प्रेरणा से कुछ बातें मेरी भी....
ReplyDeleteप्यासे हैं तात, शर-शैया पे व्याकुल
चलो अर्जुन को ,क्लब से बुलाएँ.
चुल्लू भर पानी, न ठहरेगा बालों में
लाये कहाँ से अब ,भागीरथी जटायें.
खुश हैं सुदामा,दो रुपये के चांवल में
सोच रहे - कान्हा घर जाएँ न जाएँ.