तुमको इज़्ज़त की पड़ी है,
मेरी दुनिया लुट रही है।
बेवफ़ाई की गली भी,
हां ख़ुदा द्वारा बनी है।
इश्क़ नेक़ी का मुसाफ़िर,
हुस्न धोखे की गली है।
हम चराग़ों के सिपाही,
आंधियों से दुश्मनी है।
चाह कर भी रुक न सकते,
ज़िन्दगी यारो नदी है।
क्यूं किनारों पर सड़ें जब,
लहरों की दीवानगी है।
तीरगी के इस सफ़र में, (तीरगी - अंधेरों)
जुगनुओं से दोस्ती है।
मेरी दरवेशी पे मत हंस,
अब यही मेरी ख़ुदी है। (ख़ुदी -स्वाभिमान)
चांद के जाते ही दानी,
चांदनी बिकने खड़ी है।
Sunday, 24 April 2011
Saturday, 16 April 2011
राम की नगरी
राम की नगरी में रावण की सभायें,
द्वारिका पर कंस की कसती भुजायें।
उस तरक्की के सफ़र में चल पड़े हम,
लक्ष्मणों का पाप ढोती उर्मिलायें।
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
विभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें।
आंसुओं से भीगे रामायण के पन्ने,
तुलसी भी लिक्खे सियासत की कथायें।
आज भी मीरायें विष पी रही हैं,
आज के क्रिष्णों की ठंडी हैं शिरायें।
मस्त हैं सावित्री ओ यमराज के दिल,
सत्यवां की आंखों में उमड़ी घटायें।
गांधी के बंदर कहां अब बोलते हैं,
हर तरफ़ मनमोहनी ज़ुल्मी सदायें।
नेक़ी ईमां अब सरे बाज़ार बिकते,
पाप के असबाब से बढती वफ़ायें।
मुल्क की इज़्ज़त की किसको पड़ी है,
ग़मज़दा सारे शहीदों की चितायें।
पांडवों की हार में हंसते हैं दानी
कौरवों की जीत में ख़ुशियां मनायें।
द्वारिका पर कंस की कसती भुजायें।
उस तरक्की के सफ़र में चल पड़े हम,
लक्ष्मणों का पाप ढोती उर्मिलायें।
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
विभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें।
आंसुओं से भीगे रामायण के पन्ने,
तुलसी भी लिक्खे सियासत की कथायें।
आज भी मीरायें विष पी रही हैं,
आज के क्रिष्णों की ठंडी हैं शिरायें।
मस्त हैं सावित्री ओ यमराज के दिल,
सत्यवां की आंखों में उमड़ी घटायें।
गांधी के बंदर कहां अब बोलते हैं,
हर तरफ़ मनमोहनी ज़ुल्मी सदायें।
नेक़ी ईमां अब सरे बाज़ार बिकते,
पाप के असबाब से बढती वफ़ायें।
मुल्क की इज़्ज़त की किसको पड़ी है,
ग़मज़दा सारे शहीदों की चितायें।
पांडवों की हार में हंसते हैं दानी
कौरवों की जीत में ख़ुशियां मनायें।
Sunday, 3 April 2011
ग़म के बादल
ख़ुशियों का सूर्य गायब है घर से,
छाये हैं ग़म के बादल उपर से।
आज ख़ुद रात घबराई सी है,
चांदनी भी ख़फ़ा है क़मर से।
दुनिया समझे शराबी मुझे,जब
से मिली आंख़ें तेरी नज़र से।
हार ही जीत की पहली सीढी है,
रुकते हो क्यूं पराजय के डर से।
इस महक को मैं पहचानता हूं,
बेवफ़ा गुज़री होगी इधर से।
रातें कट जाती हैं जैसे तैसे,
डरती हैं मेरी सांसें सहर से।
रोज़ वो किस गली गुल खिलाती,
कुछ पता तो करो रहगुज़र से।
दूर रख दिल पहाड़ों से,बचना
भी कठिन गर गिरोगे शिखर से।
ईद का चांद जब तक दिखे ना
मैं हटूंगा नही दानी दर से।
छाये हैं ग़म के बादल उपर से।
आज ख़ुद रात घबराई सी है,
चांदनी भी ख़फ़ा है क़मर से।
दुनिया समझे शराबी मुझे,जब
से मिली आंख़ें तेरी नज़र से।
हार ही जीत की पहली सीढी है,
रुकते हो क्यूं पराजय के डर से।
इस महक को मैं पहचानता हूं,
बेवफ़ा गुज़री होगी इधर से।
रातें कट जाती हैं जैसे तैसे,
डरती हैं मेरी सांसें सहर से।
रोज़ वो किस गली गुल खिलाती,
कुछ पता तो करो रहगुज़र से।
दूर रख दिल पहाड़ों से,बचना
भी कठिन गर गिरोगे शिखर से।
ईद का चांद जब तक दिखे ना
मैं हटूंगा नही दानी दर से।
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