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Saturday 20 November 2010

बेबस महफ़िल

महफ़िलें भी आज बेहद तन्हा हैं
बज़्मे दिल में बेरुख़ी का पर्दा है।

जो समंदर सा दिखे किरदार से
वो किनारों की ग़ुलामी करता है।

इश्क़ का घर सब्र से मजबूत है
हुस्न की छत पे हवस का सरिया है।

नेक़ी मौक़ों की नज़ाकत पर टिकी
चोरी करना सबको अच्छा लगता है।

मन की दीवारें सुराख़ो से भरीं
जिसके अंदर हिर्स का जल बहता है।

ज़िन्दगी को हम ही उलझाते रहे
आदमी जीते जी हर पल मरता है।

अब मदद की सीढियों सूखी हैं पर
शौक के घर बेख़ुदी का दरिया है।

हां रसोई ,रिश्तों की बेस्वाद है
देख कर कद, दूध शक्कर बंटता है।

दानी का दिल है चराग़ों पर फ़िदा
आंधियों से अब कहां वो डरता है।

5 comments:

  1. कार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव की आपको बहुत बहुत बधाई !

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  2. नेकी मौकों की नज़ाकत पर टिकी................. गजब सर जी गजब
    देख कर कद दूध शक्कर बँटता है.............. बहुत खूब संजय भाई

    वाकई संजय भाई आप जैसे फनकार को आँधियों से डरने की ज़रूरत भी क्या है| बधाई स्वीकार करें|

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  3. आज कल के हालातों की गवाह ये उम्दा गज़ल है. बधाई.

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  4. बजाज साहब , नवीन जी और अनामिका जी को उनके कमेन्ट्स के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ,आपकी हौसला अफ़ज़ाई ही मेरी कमाई है। यूं ही गाहे ब गाहे आप सबके दीद का मैं तलबगार रहूंगा।

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  5. दानी का दिल है चराग़ों पर फ़िदा
    आंधियों से अब कहां वो डरता है ..

    बहुत खूब .. कुछ जुड़ा जुड़ा सा अंदाज़ पसंद आया ... अच्छे हैं सब शेर ...

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