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Wednesday 4 April 2012

MERA YAR KAHE

हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे,
मुझको ये मंज़ूर तभी होगा जब मेरा यार कहे।

मैं एक सिपाही हूं ख़ामोश पसंद ज़ुबां है मेरी,
दिल की बात मुकम्मल, सरहद पे मेरी तलवार कहे।

बेजान किनारों को जीत अकड़ न दिखाओ, है हिम्मत,
तो फिर मुझसे हाथ लड़ाओ सागर की मंझधार कहे।

मेरी हद तंग करो ना, भाई भाई के झगड़े में
रोते रोते हमसे गमगीं पुरखों की दीवार कहे।

सिर्फ़ ख़ुदा के आगे झुकता हूं , मुझसे उम्मीद न रख,
शाह से ,एक नक़ीब फ़कीर की गैरत-ए-दस्तार कहे।

इक घर में रह कर भी बरसों आपस में मिल ना पायें,
दौलत की दुनिया इनको ही आज सफ़ल परिवार कहे।

बिन्तों से ही कुनबा बढता है और न मारो इनको, ( बिन्तों - पुत्रियों)
हर उपदेश कहे ,हर तहज़ीब कहे, हर संस्कार कहे।

भूख अशिक्षा व गरीबी के दम ख़ूब बुलंद रहेंगे,
मजबूर वतन से ,ग्यानी ज़रदारों की सरकार कहे।

लूट खसोट जमाखोरी से कस्त्र खड़ा करके दानी,
हम बेईमानों के वंशज, इसको भी व्यापार कहें।

1 comment:

  1. meri dost ki taraf se ek msg :
    माफ़ी चाहूंगी आप के ब्लॉग मे आप की रचनाओ के लिए नहीं अपने लिए सहयोग के लिए आई हूँ | मैं जागरण जगंशन मे लिखती हूँ | वहाँ से किसी ने मेरी रचना चुरा के अपने ब्लॉग मे पोस्ट किया है और वहाँ आप का कमेन्ट भी पढ़ा |मैंने उन महाशय के ब्लॉग मे कमेन्ट तो किया है मगर वो जब चोरी कर सकते है तो कमेन्ट को भी डिलीट कर सकते है |मेरा मकसद सिर्फ उस चोर के चेहरे से नकाब उठाने का है | आप से सहयोग की उम्मीद है | लिंक दे रही हूँ अपना भी और उन चोर महाशय का भी
    http://div81.jagranjunction.com/author/div81/page/4/


    http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.in/2011/03/blog-post_557.html

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