तुम मेरे दर्द की दवा भी हो,
तुम मेरे ज़ख़्मों पर फ़िदा भी हो।
इश्क़ का रोग ठीक होता नहीं,
ये दिले नादां को पता भी हो।
शह्रों की बदज़नी भी हो हासिल,
गांवों की बेख़ुदी अता भी हो।
पेट परदेश में भरे तो ठीक,
मुल्क में कब्र पर खुदा भी हो।
महलों की खुश्बू से न हो परहेज़,
साथ फ़ुटपाथ की हवा भी हो।
उस समन्दर में डूबना चाहूं,
जो किनारों को चाहता भी हो।
मैं ग़रीबी की आन रख लूंगा,
पर अमीरों की बद्दुआ भी हो।
हारे उन लोगों से बनाऊं फ़ौज़,
जिनके सीनों में हौसला भी हो।
आशिक़ी का ग़ुनाह कर लूं साथ
दानी,मां बाप की दुआ भी हो।
महलों की खुश्बू से न हो परहेज़,
ReplyDeleteसाथ फ़ुटपाथ की हवा भी हो।
वाह..बेहतरीन अशआरों से सजी इस ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाई
नीरज
उस समन्दर में डूबना चाहूं,
ReplyDeleteजो किनारों को चाहता भी हो।...
बहुत सुन्दर रचना...
नीरज साहब और संध्या जी को आभार।
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