आशिक़ी का कोई तो पैमाना होगा,
बेबसी के गीत कब तक गाना होगा।
चादनी की बदज़नी स्वीकार कर ले,
चंद को घर छोड़ या फिर जाना होगा।
सर झुका कर हुस्न के नखरे जो झेले,
दौरे-फ़रदा में वही मरदाना होगा।
दिल समंदर के नशा से निकले बाहर,
हुस्न की कश्ती में गर मैखाना होगा।
मैं ग़ुनाहे -इश्क़ कर तो लूं सनम,गर
दा्यरे- तफ़्तीश तेरा थाना होगा।
आये मुल्के हुस्न में आफ़त का तूफ़ां,
गर सिपाही इश्क़ का बेगाना होगा।
तेरी आंखों में शरारे जब दिखेंगी,
मरने को तैयार ये परवाना होगा।
फ़ंस चुका है जो हवस के जाल में ,वो
सब्र की शमशीर से अन्जाना होगा।
गर मदद की आग दानी लेनी है तो
तो गुज़रिश का धुआं फ़ैलाना होगा।
Wednesday, 26 October 2011
Saturday, 8 October 2011
अब इश्क़ में पारसाई
अब इश्क़ की गली में कोई पारसा नहीं,
सुख, त्याग का सफ़र कोई जानता नहीं।
ये दौर है हवस का सभी अपना सोचते,
रिश्तों की अहमियत से कोई वास्ता नहीं।
फुटपाथ पर गरीबी ठिठुरती सी बैठी है
ज़रदारे-शह्र अब किसी की सोचता नहीं।
जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
मरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।
वे क़िस्से लैला मजनूं के सुन के करेंगे क्या,
आदेश हिज्र का कोई जब मानता नहीं।
मंझधार कश्तियों की मदद करना चाहे पर,
मगरूर साहिलों क कहीं कुछ पता नहीं।
ये दौर कारखानों का है खेती क्यूं करें,
मजबूरी की ये इन्तहा है इब्तिदा नहीं।
मंदिर की शिक्षा बदले की,मस्जिद में वार का
अब धर्म ओ ग़ुनाह में कुछ फ़ासला नहीं।
दिल के चराग़ों को जला, बैठा है दानी, वो
कैसे कहे हवा-ए-सनम में वफ़ा नहीं।
सुख, त्याग का सफ़र कोई जानता नहीं।
ये दौर है हवस का सभी अपना सोचते,
रिश्तों की अहमियत से कोई वास्ता नहीं।
फुटपाथ पर गरीबी ठिठुरती सी बैठी है
ज़रदारे-शह्र अब किसी की सोचता नहीं।
जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
मरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।
वे क़िस्से लैला मजनूं के सुन के करेंगे क्या,
आदेश हिज्र का कोई जब मानता नहीं।
मंझधार कश्तियों की मदद करना चाहे पर,
मगरूर साहिलों क कहीं कुछ पता नहीं।
ये दौर कारखानों का है खेती क्यूं करें,
मजबूरी की ये इन्तहा है इब्तिदा नहीं।
मंदिर की शिक्षा बदले की,मस्जिद में वार का
अब धर्म ओ ग़ुनाह में कुछ फ़ासला नहीं।
दिल के चराग़ों को जला, बैठा है दानी, वो
कैसे कहे हवा-ए-सनम में वफ़ा नहीं।
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