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Saturday 4 December 2010

सब्र का जाम

सोच के दीप जला कर देखो,
ज़ुल्म का मुल्क ढ्हा कर देखो।

दिल के दर पे फ़िसलन है गर,
हिर्स की काई हटा कर देखो।

साहिल पे सुकूं से रहना गर,
लहरों को अपना कर देखो।

ग़म के बादल जब भी छायें,
सब्र का जाम उठा कर देखो।

ईमान ख़ुदाई नेमत है,
हक़ पर जान लुटा कर देखो।

डर का कस्त्र ढहाना है गर,
माथ पे ख़ून लगा कर देखो।

आग मुहब्बत की ना बुझती,
हीर की कब्र खुदा कर देखो।

वस्ल का शीश कभी न झुकेगा,
हिज्र को ईश बना कर देखो।

डोर मदद की हर घर में है,
हाथों को फैला कर देखो।

हुस्न का दंभ घटेगा दानी,
इश्क़ का फ़र्ज़ निभा कर देखो।

8 comments:

  1. बहुत खूब कहा है दानी जी आपने । डोर मदद की हर घर में है,
    हाथों को फैला कर देखो । सोच के दीप जला कर देखो,
    ज़ुल्म का मुल्क ढ्हा कर देखो।

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  2. वाह .. ग़ज़ब ke शेर है ... वैसे पूरी ग़ज़ल अलग सा मज़ा देती है ...

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  3. ग़म के बादल जब भी छायें,
    सब्र का जाम उठा कर देखो।
    har sher men sandesh hai dakter saheb aapki soch ko aur aapko mubarak ho

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  4. डोर मदद की हर घर में है,
    हाथों को फैला कर देखो।
    बहुत खूब.

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  5. एक-एक पंक्ति लाजवाब है ।

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  6. ग़म के बादल जब भी छायें,
    सब्र का जाम उठा कर देखो।
    ... bahut khoob ... behatreen gajal !!!

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  7. आप सबका मैं तहे दिल शुक्र्गुज़ार हूं ।

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  8. बहुत लाजवाब ग़ज़ल है ।

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