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Saturday 23 October 2010

नई नौकरी

इस भीड़ भरी ट्रेन में कोई नहीं मेरा,
तन्हाई के बिस्तर में तसव्वुर का बसेरा।

रफ़्तार बहुत तेज़ है बैठा भी न जाता,
मजबूरी के चादर में ग़मे-जिस्म लपेटा।

मुझको नहीं मालूम कहां है मेरी मन्ज़िल,
कब ये ख़ौफ़ज़दा रस्ता सख़ावत से हटेगा। ( सख़ावत- दानशीलता)

मै एक नई नौकरी करने चला परदेश,
माज़ी के ग़मों का जहां होगा न बखेड़ा। (माज़ी - बीता समय)

मग़रूर था उस फ़ेक्टरी का दिल जहां था मैं,
सम्मान नये स्थान में महफ़ूज़ रहेगा।

हम नौकरों को झेलना ही पड़ता है ये सब,
मालिक के बराबर कहां ठहराव मिलेगा।

अपनों से विदा ले के चला हूं मैं सफ़र में,
अब हश्र तलक अपनों को ये दिल न दिखेगा।

सच्चाई दिखानी है वहां अपने ज़मीं की,
अब झूठ का दरिया वहां पानी भरेगा।

किस्मत का बदलना मेरे बस में नहीं दानी,
भगवान ही दानी की ख़ता माफ़ करेगा ।

5 comments:

  1. इस भीड़ भरी ट्रेन में कोई नहीं मेरा....
    कितना दर्द भरा है...
    जब आपको लगे कि इस भीड़ में भी आप अकेले हो...
    शब्दों से दोस्ती
    हो गई है मेरी
    कोई फर्क नही् पड़ता
    ट्रेन भरी हो या खाली !!!

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  2. ड़ा: हरदीप संधु जी और तुषार जी को शतशत शुक्रिया।

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  3. पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है

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  4. ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
    आपको और आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं ....

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