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Saturday 18 September 2010

अख़बार हूं,

दर्दो- ग़म आंसुओं का तलबगार हूं,
मैं तो इल्मे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं।

मुझपे इन्सानियत का करम तो है पर,
बदजनों के लिये मैं पलटवार हूं।

धर्म फिर बांट देगा मुझे देखना,
मुल्क का डर,कहां मैं निराधार हूं।

वो सनकती हवाओं सी बेदर्द है,
मैं अदब के चराग़ों सा दिलदार हूं।

तुम हवस के किनारों पे बेहोश हो,
सब्रे सागर का बेदार मंझधार हूं।

मेरे आगे ख़ुदा भी झुकाता है सर,
मैं धनी आदमी का अहंकार हूं।

बेवफ़ाई की दौलत मुझे मत दिखा,
मैं वफ़ा के ख़ज़ाने का सरदार हूं।

ऐ महल ,झोपड़ी की न कीमत लगा,
अपनी कीमत बता,मैं तो ख़ुददार हूं।

रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।

4 comments:

  1. दानी साहब,
    आपकी सभी ग़ज़लें बहुत खूबसूरत हैं. डाक्टरी के व्यस्त प्रोफेशन में रह कर भी इतनी अच्छी गज़ल कहना वाकई अद्भुत है..

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  2. राजीव भरोल जी आप जैसे लोगों की सोहबत और उपर वाले के करम से हमारी भी कलम चल जाती है, बहरहाल ब्लाग में आपका तहे दिल स्वागत है और हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।यूं ही गाहे-ब-गाहे दर्शन एक दूजे को देते रहेंगे तो कुछ कुछ ना सुकून मिलता रहेगा।

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  3. मुझपे इन्सानियत का करम तो है पर,
    बदजनों के लिये मैं पलटवार हूं।

    बहुत खूब ....!!

    रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
    मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।

    कुछ अलग से हट के लगे आपके शे'र संजय जी .... .....

    बधाई .....!!

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  4. हरकीरत हीर जी को हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।

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