भुरभुरा है दिल का गागर,
क्यूं रखेगा कोई सर पर।
हिज्र का दीया जलाऊं,
वस्ल के तूफ़ां से लड़ कर।
उनकी आंखों के दो साग़र,
ग़म बढाते हैं छलक कर।
जब से तुमको देखा हमदम,
थम गया है दिल का लश्कर।
भंवरों का घर मत उजाड़ो,
फूल, बन जायेंगे पत्थर।
झूठ का आकाश बेशक,
जल्द ढह जाता ज़मीं पर।
ग़म, किनारों का मुहाफ़िज़
सुख का सागर दिल के भीतर।
न्याय क़ातिल की गिरह में,
फ़ांसी पे मक़्तूल का सर।
आशिक़ी मांगे फ़कीरी,
दानी भी भटकेगा दर-दर।
Saturday, 25 December 2010
Saturday, 18 December 2010
बदज़नी से
दर्द के दरिया से दिल की उलफ़त हुई
यादों की कश्तियों में तबीयत चली।
बेबसी के सफ़र का मुसाफ़िर हूं मैं,
हुस्न के कारवां की इनायत यही।
मैं ज़मानत चरागों की लेता रहा,
आंधियों की अदालत ने तेरी सुनी।
दिल, ग़मों के कहानी का किरदार है,
हुस्न के मंच पर मेरी मैय्यत सजी।
है मदद की छतों पर मेरी सल्तनत,
तू ज़मीने-सितम की रियासत रही।
अपने घर में जहन्नुम भुगतता रहा,
सरहदे-इश्क़ में मुझे ज़न्नत मिली।
बदज़नी से मेरा रिश्ता बरसों रहा,
तेरी गलियों में सर पे शराफ़त चढी ।
मैं किताबे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं,
बेवफ़ाई तुम्हारी शरीयत बनी।
प्यार की कश्ती सागर की जानिब चली,
तेरे वादों के साहिल की दहशत बड़ी।
दिल ये, दानी का मजबूत था हमनशीं,
जब से तुमसे मिला हूं नज़ाकत बढी।
यादों की कश्तियों में तबीयत चली।
बेबसी के सफ़र का मुसाफ़िर हूं मैं,
हुस्न के कारवां की इनायत यही।
मैं ज़मानत चरागों की लेता रहा,
आंधियों की अदालत ने तेरी सुनी।
दिल, ग़मों के कहानी का किरदार है,
हुस्न के मंच पर मेरी मैय्यत सजी।
है मदद की छतों पर मेरी सल्तनत,
तू ज़मीने-सितम की रियासत रही।
अपने घर में जहन्नुम भुगतता रहा,
सरहदे-इश्क़ में मुझे ज़न्नत मिली।
बदज़नी से मेरा रिश्ता बरसों रहा,
तेरी गलियों में सर पे शराफ़त चढी ।
मैं किताबे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं,
बेवफ़ाई तुम्हारी शरीयत बनी।
प्यार की कश्ती सागर की जानिब चली,
तेरे वादों के साहिल की दहशत बड़ी।
दिल ये, दानी का मजबूत था हमनशीं,
जब से तुमसे मिला हूं नज़ाकत बढी।
Saturday, 11 December 2010
दोस्तों ने कर दिया
दोस्तों ने कर दिया बरबाद घर
दुश्मनों से अब नहीं लगता है डर।
कब मिलेगी मन्ज़िलों की दीद, कब
ख़त्म होगा तेरे वादों का सफ़र।
जिसके कारण मुझको दरवेशी मिली
है इनायत उसकी सारे शहर पर।
आशिक़ी क्या होती है क्या जानो तुम
क़ब्र में भी रहता है दिल मुन्तज़र।
छोड़ दूं मयख़ाने जाना गर तू, रख
दे अधर पे मेरे, अपने दो अधर।
कश्ती-ए- दिल है समन्दर का ग़ुलाम
लग नहीं जाये किनारों की नज़र।
हौसलों से मैं झुकाऊंगा फ़लक
क्या हुआ कट भी गये गर बालो-पर।
छोड़ कर मुझको गई है जब से तू
है नहीं इस दिल को अपनी भी ख़बर।
है चरागों सा मुकद्दर मेरा भी
दानी भी जलता है तन्हा रात भर।
मुन्तज़र -- इन्तज़ार में। फ़लक - आसमां
बालो-पर- बाल और पंख
दुश्मनों से अब नहीं लगता है डर।
कब मिलेगी मन्ज़िलों की दीद, कब
ख़त्म होगा तेरे वादों का सफ़र।
जिसके कारण मुझको दरवेशी मिली
है इनायत उसकी सारे शहर पर।
आशिक़ी क्या होती है क्या जानो तुम
क़ब्र में भी रहता है दिल मुन्तज़र।
छोड़ दूं मयख़ाने जाना गर तू, रख
दे अधर पे मेरे, अपने दो अधर।
कश्ती-ए- दिल है समन्दर का ग़ुलाम
लग नहीं जाये किनारों की नज़र।
हौसलों से मैं झुकाऊंगा फ़लक
क्या हुआ कट भी गये गर बालो-पर।
छोड़ कर मुझको गई है जब से तू
है नहीं इस दिल को अपनी भी ख़बर।
है चरागों सा मुकद्दर मेरा भी
दानी भी जलता है तन्हा रात भर।
मुन्तज़र -- इन्तज़ार में। फ़लक - आसमां
बालो-पर- बाल और पंख
Saturday, 4 December 2010
सब्र का जाम
सोच के दीप जला कर देखो,
ज़ुल्म का मुल्क ढ्हा कर देखो।
दिल के दर पे फ़िसलन है गर,
हिर्स की काई हटा कर देखो।
साहिल पे सुकूं से रहना गर,
लहरों को अपना कर देखो।
ग़म के बादल जब भी छायें,
सब्र का जाम उठा कर देखो।
ईमान ख़ुदाई नेमत है,
हक़ पर जान लुटा कर देखो।
डर का कस्त्र ढहाना है गर,
माथ पे ख़ून लगा कर देखो।
आग मुहब्बत की ना बुझती,
हीर की कब्र खुदा कर देखो।
वस्ल का शीश कभी न झुकेगा,
हिज्र को ईश बना कर देखो।
डोर मदद की हर घर में है,
हाथों को फैला कर देखो।
हुस्न का दंभ घटेगा दानी,
इश्क़ का फ़र्ज़ निभा कर देखो।
ज़ुल्म का मुल्क ढ्हा कर देखो।
दिल के दर पे फ़िसलन है गर,
हिर्स की काई हटा कर देखो।
साहिल पे सुकूं से रहना गर,
लहरों को अपना कर देखो।
ग़म के बादल जब भी छायें,
सब्र का जाम उठा कर देखो।
ईमान ख़ुदाई नेमत है,
हक़ पर जान लुटा कर देखो।
डर का कस्त्र ढहाना है गर,
माथ पे ख़ून लगा कर देखो।
आग मुहब्बत की ना बुझती,
हीर की कब्र खुदा कर देखो।
वस्ल का शीश कभी न झुकेगा,
हिज्र को ईश बना कर देखो।
डोर मदद की हर घर में है,
हाथों को फैला कर देखो।
हुस्न का दंभ घटेगा दानी,
इश्क़ का फ़र्ज़ निभा कर देखो।
Wednesday, 1 December 2010
क्या भरोसा ज़िन्दगी का
क्या भरोसा ज़िदगी का
वक़्त की नाराज़गी का।
इश्क़ के बादल भटकते
दे पता अपनी गली का।
हुस्न की लहरों से बचना
ये समंदर है बदी का।
फूलों को समझाना आसां
ना-समझ है दिल कली का।
आंधी सी वो आई घर में
थम चुका है कांटा घड़ी का।
दौड़ने से क्या मिलेगा
ये सफ़र है तश्नगी का।
बन्धनों से मुक्त है जो
मैं किनारा उस नदी का।
चांद के सर पे है बैठी
क्या मज़ा है चांदनी का।
ग़म खड़ा है मेरे दर पे
क्या ठिकाना अब ख़ुशी का।
बेच खाया दानी का घर
ये सिला है दोस्ती का।
वक़्त की नाराज़गी का।
इश्क़ के बादल भटकते
दे पता अपनी गली का।
हुस्न की लहरों से बचना
ये समंदर है बदी का।
फूलों को समझाना आसां
ना-समझ है दिल कली का।
आंधी सी वो आई घर में
थम चुका है कांटा घड़ी का।
दौड़ने से क्या मिलेगा
ये सफ़र है तश्नगी का।
बन्धनों से मुक्त है जो
मैं किनारा उस नदी का।
चांद के सर पे है बैठी
क्या मज़ा है चांदनी का।
ग़म खड़ा है मेरे दर पे
क्या ठिकाना अब ख़ुशी का।
बेच खाया दानी का घर
ये सिला है दोस्ती का।
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