तेरी यादों की नदी फिर बह रही है,
फिर ज़मीने-दिल परेशां हो गई है।
ख़्वाबों के बिस्तर में सोता हूं अब मैं,
बे-मुरव्वत नींद मयके जा चुकी है।
दिल ये सावन की घटाओं पे फ़िदा है,
तेरी ज़ुल्फ़ें ही फ़िज़ाओं की ख़ुदी है।
मैं कहानीकार ,तुम मेरे अदब हो,
मेरी हर तहरीर तुमसे जा मिली है।
नाम तेरा ही बसा है मेरे लब पे,
दिल्लगी है दिल की, या दिल की लगी है।
इक छलावा हो गई लैला की कसमें,
मजनूं के किरदार पर दुनिया टिकी है।
महलों की दीवारों पे शत शत सुराख़ें,
झोपड़ी विशवास के ज़र पर खड़ी है।
जान देकर हमने सरहद को बचाया,
पर मुहल्ले की फ़ज़ायें मज़हबी हैं।
हुस्न के सागर में दानी डूबना है,
कश्ती-ए-दिल की हवस से दोस्ती है।
महलों की दीवारों पे शत शत सुराख़ें,
ReplyDeleteझोपड़ी विशवास के ज़र पर खड़ी है....
बहुत गहरी बात कह डाली....
विशवास हमारी जीने की सबसे बड़ी ताकत है.....
वो मध्य वर्ग में ज्यादा पाया जाता है।
आप का शब्दों का उजाला आना अच्छा लगा ...आप को बाल-कविता अच्छी लगी..बहुत-बहुत शुक्रिया ।
मैने इसी ब्लॉग पर एक और बाल-कविता पोस्ट की थी...चिड़िया -कबूतर पकड़ना....समय मिले तो पढ़ लिजिएगा ।
आदरणीया डा:हरदीप संधु जी टिप्पणी के साथ हौसला अफ़ज़ाई के लिये शुक्रिया। आपकी कविता ज़रूर पढू्ंगा क्यूंकि "पद्य" पढना मेरी कमज़ोरी है।
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