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Saturday 25 September 2010

हंगामे-इश्क़।

सर झुकाता ही नहीं हंगामे- इश्क़,
इसलिये सबसे उपर है नामे-इश्क़।

है नहीं सारा ज़माना रिंद पर,
कौन है जो ना पिया हो जामे-इश्क़।

इश्क़ में कुर्बानी पहली शर्त है,
इक ज़माने से यही अन्जामे-इश्क़।

दुश्मनों से भी गले दिल से मिलो,
सारी दुनिया को यही पैग़ामे-इश्क़।

फिर खड़ी है चौक पे वो बेवफ़ा,
फिर करेगी शहर में नीलामे-इश्क़।

जिसको पहले प्यार का गुल समझा था,
निकली अहले-शहर की गुलफ़ामे-इश्क़।

हुस्न के मंदिर में घुसने ना मिला,
ये अता है ये नहीं नाकामे-इश्क़।

बस तड़फ़ बेचैनी रुसवाई यही,
मजनू को है लैला का इनआमे-इश्क़।

तर-ब-तर हो जाता हूं बारिश में मैं,
दानी का बेसाया क्यूं है बामे-इश्क़।

हंगाम--पल,समय। रिंद-शराबी। अहले-शहरकी-शहरवालों की।
अता- देन। बामे-इश्क़- इश्क़ का छत।

Saturday 18 September 2010

अख़बार हूं,

दर्दो- ग़म आंसुओं का तलबगार हूं,
मैं तो इल्मे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं।

मुझपे इन्सानियत का करम तो है पर,
बदजनों के लिये मैं पलटवार हूं।

धर्म फिर बांट देगा मुझे देखना,
मुल्क का डर,कहां मैं निराधार हूं।

वो सनकती हवाओं सी बेदर्द है,
मैं अदब के चराग़ों सा दिलदार हूं।

तुम हवस के किनारों पे बेहोश हो,
सब्रे सागर का बेदार मंझधार हूं।

मेरे आगे ख़ुदा भी झुकाता है सर,
मैं धनी आदमी का अहंकार हूं।

बेवफ़ाई की दौलत मुझे मत दिखा,
मैं वफ़ा के ख़ज़ाने का सरदार हूं।

ऐ महल ,झोपड़ी की न कीमत लगा,
अपनी कीमत बता,मैं तो ख़ुददार हूं।

रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।

Saturday 11 September 2010

तवायफ़

ज़िन्दगी इक मशीन बन चुकी है,
बेबसी की ज़मीन हो चली है।

काम का बोझ बढते ही जा रहा,
पीठ की छाती फटने सी लगी है।

सच का छप्पर चटकने को हुआ,
झूठ की नींव पुख़ता हो रही है।

लैला मजनूं का कारवां ख़ामोश,
ये हवस की सदाओं की सदी है।

पेड़ उगने लगे हैं पैसों के,
पर मदद की जड़ें उखड़ गई हैं।

गांव के खेत तन्हा से खड़े हैं,
कारख़ानों में महफ़िलें सजी हैं।

आसमां ख़ुद ही झुकना चाहता ,पर
कोशिशों की ज़ुबां दबी दबी हैं।

अब सियासत तो धर्म का बाज़ार,
इक तवायफ़ सी बिकने को खड़ी है।

महलों में ज़ोर ज़ुल्म के अरदास,
शांति के मद में दानी झोपड़ी है।

Saturday 4 September 2010

दिल के दरों को

खटखटाया ना करो दिल के दरों को,
मैं खुला रखता हूं मन की खिड़कियों को।

फिर दरख़्ते प्यार में घुन लग रहा तुम,
काट डालो बेरुख़ी के डालियों को।

गर बदलनी दुश्मनी को दोस्ती में,
तो मिटा डालो दिलों के सरहदों को।

बढ गई है ग़म की परछाई ज़मीं में,
धूप का दीमक लगा ,सुख के जड़ों को।

मैं मकाने-इश्क़ के बाहर खड़ा हूं,
तोड़ आ दुनिया के रस्मों की छतों को।

गो ज़ख़ीरा ज़ख़्मों का लेकर चला हूं,
देख हिम्मत, देख मत घायल परों को।

फ़स्ले-ग़ुरबत कुछ अमीरों ने बढाई,
लूट लेते हैं मदद के पानियों को।

ख़ुशियों के दरिया में ग़म की लहरें भी हैं,
सब्र की शिक्छा दो नादां कश्तियों को।

घर के भीतर राम की हम बातें करते,
घर के बाहर पूजते हैं रावणों को।

छत चराग़े-सब्र से रौशन है दानी,
जंग का न्योता है बेबस आंधियों को।